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       डोर और पतंग

 
बार-बार टूटने को डोर ये अड़ी हुई
आसमां पे दूर ये पतंग सी तनी हुई

खींच लूँ या ढील दूँ या तोड़ दूँ ये डोर ही
हाथ आ रही नहीं है जान पे बनी हुई

नफ़रतों की आग आसमान से रही बरस
आशियाँ जला मेरा वो आतिशी झड़ी हुई

प्यार की पुकार का दिलों को आसरा है अब
प्यार से गुजार दे जो ज़िन्दगी पड़ी हुई

जोड़ने जो दिल चले थे प्यार की डगर पे हम
किस तरह ये दिल मिलें जो सामने अनी हुई

आसमां में उड़ रही है आस की पतंग ये
हत्थे से उखड़ अभी न पेंच ये लड़ी हुई

आज इम्तिहान की घड़ी न हार मान तू
प्यार की ही जीत हो सभी के मन ठनी हुई


- कुन्तल श्रीवास्तव
१ फरवरी २०२१

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