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मौसम के दोहे
तीन रचनाकार

 

 

धर्म का धंधा कर रहे, चैनल वाले संत
भीतर बस पतझड़ भरा, बाहर दिखे बसंत।

मत पूछो जनतंत्र में, नेताओं के रंग
खुद तो ये चरखी हुए, जनता कटी पतंग।

फागुन आया खिल गए, टेसू और कनेर
गदराया यौवन कहे, प्रियतम मत कर देर।

साधो ऋतु वसंत की, महिमा बड़ी अनंत
होली में हुलसे फिरें, जिन्हें कहें सब संत।

गली-गली में हो रहा, होली का हुड़दंग
सब पानी-पानी हुए, महंगे हो गए रंग।

घर में जब मुश्किल हुआ, मिलना रोटी दाल
होली में दामाद जी, खिसक गए ससुराल।

दादा को गठिया हुआ, किसे सुनाएँ पीर
पीछे-पीछे घूमती, बुढ़िया लिए अबीर।

लैंडलाइन पत्नी हुई, घिसी-पिटी सी टोन
होली में साली हुई, ज्यों मोबाइल फोन।

एक हाथ गुझिया लिए, एक हाथ नमकीन
फिर भी होठों को लगे, साली बड़ी हसीन।

-सुनील जोगी

आँधी उठी अबीर की राही भूले पंथ।
आज ताक पर ही रखे रहे सभी सद्ग्रंथ।।

जब से मिला पड़ोस में सोनजुही का फूल।
रातें नागफनी हुई दिन हो गए बबूल।।

दहकी-दहकी दोपहर बहकी-बहकी रात।
फागुन आया गाँव में लेकर ये सौगात।।

-शिवओम अंबर

भीगा फागुन रंग में, आया जो त्यौहार
लाल टेसुओं ने किया, मौसम का सिंगार

अभी नहा कर आई हो, ऐसी खिलती धूप
पीली चादर में निखर, दमके उसका रूप

सज वासंती रंग में, हुआ बसंत विभोर
बौर आम की गंध ले, उड़ी हवा चहुँ ओर

-मानसी

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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