अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

फागुन की मस्त बयार

 

  फागुन की मस्त बयार चले, विरह की
अगन जलाए रे।
हरे वसन के घूँघट से तू सरसों
क्यों मुस्काए रे?

नगर-नगर द्वार-द्वार ग्राम-ग्राम में
अबीर के बादल छाए
प्रियतम तो परदेस बसे हैं, नयन
नीर बरसाए रे।

चाँद की शीतल किरनों से शृंगार
किया मैंने अपना
अंसुवन से नयनों का काजल, बार
बार धुल जाए रे।

फगुआ, झूमर और चौताला जब परवान
चढाई जाए
ढोल, मंजीरे और मृदंगा, तुम बिन
जिय धड़काए रे।

बीत न जाए ये फागुन भी, जियरा
तरसे होली खेलन
गीतों की गमक, नृत्यों की धमक, सब
तेरी याद दिलाए रे।

कागा इतना शोर मचाए, लाया है
संदेश पिया का
मधुकर भी मधु-रस पी पी कर, फूलों
पर मंडराए रे।

हरे वसन के घूँघट से सरसों भी
मुख चमकाए रे!!

- महावीर शर्मा

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter