राम सृष्टि का मूल हैं

 
  पार लगायें राम जी, रहे न मन में भीति
हो निषाद-सी आस्था, हो शबरी-सी प्रीति

करिए शुभ की कामना, भजिए मन में राम
पल-पल जीवन कीजिए, सत्कर्मों के नाम

राम सृष्टि का मूल है, राम जगत् का सार
सत् के अनुचर हम बनें, होगा जीवन पार

जग में हाहाकार है, पापी करते राज
रखिए आकर राम जी, मानवता की लाज

रामराज की बात कर, न्याय-नीति से दूर
दीन-हीन को छल रहे, लोभी, कपटी, क्रूर

कपट, कलुष, अन्याय है, मचा हुआ कुहराम
भक्तों की विनती सुनो, आओ फिर से राम

दया-दृष्टि के स्रोत जो, जिनमें अनुपम धीर
राम वही राघव वही, रघुनन्दन रघुवीर

मन का रावण मार कर, हुए अगर निष्काम
सच्ची होगी साधना, पार करेंगे राम

करें आचरण राम-सा, बनें नेक इन्सान
हम रख पायेंगे तभी, आदर्शों का मान

लाठी बनें अपंग की, दीन-हीन के प्राण
मानवता उन्नति करे, रघुवर देंगे त्राण

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
१ अप्रैल २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter