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दीदी के जाने के बाद

रक्षाबंधन

दीदी जब सावन में
काली मिट्टी पर उग आए
हरे पौधों को देखता हूँ
तो मेरी साँवली कलाई पर
हरे रंग का रेशम
खुद ब खुद
उग आता है
मैं अपने माथे पर
सुर्ख रोली ढूँढता हूँ
और
जब सहर आसमाँ के माथे पर
वही लाल रोली मलती है
तो हल्का-सा टीका मुझे भी
लगा जाती है!!
बरसात जब बूँदों का अक्षत
मेरे सर पर छिड़कती है
तो मैं होश में आता हूँ
और
सूनी कलाई सूनी दुनिया
सूना माथा पाता हूँ!!
दीदी, कभी भोर, कभी मिट्टी,
कभी बारिश बन कर आओ
शायद मैं अकेला हूँ
मुझे साथ ले जाओ...

--दिव्यांश शर्मा
६ अगस्त २०१२

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