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सखी री दीप जला

   



 


वो बचपन के दिन औ दिवाली का मेला
सभी साथ रहते न कोई अकेला

पटाखे भी लेते खिलौने भी लेते
बड़ा व्यस्त रहता वो जुम्मन का ठेला

मगर जाने किसकी नज़र लग गई अब
कि इंसान के सिर नया है झमेला

नहीं आज दिखती वो पहले सी रौनक
कहाँ काफ़िले वो कहाँ अब वो रेला

दिवाली दिवाला निकाले पड़ी है
कि बच्चों की ख़ातिर ही सब हमने झेला

दिवाली में अपना हुनर सब जगाते
गुरू ज्ञान बाँटे, बटोरे है चेला

- अमित दुबे
२८ अक्तूबर २०१३

   

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