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दिये जलाने की है बेला

   



 

रात अमावस
घना अँधेरा
दिये जलाने की है बेला

ड्योढ़ी पर गणपति का दीया
आँगन में पुरखों की बाती
कलश-धरी जोती में बाँचें
लछमी मइया सुख की पाती

देवा काटें
दुख बरसों का
अवधपुरी ने जो है झेला

महल और कुटिया दोनों में
नेह-भरा होवे उजियारा
भीतर जो बहती है गंगा
जल उसका हो कभी न खारा

विपदा-कष्ट
न व्यापे जग को
कोई होवे नहीं अकेला

नीचे दीयों की मजलिस है
ऊपर है तारों की महफ़िल
जो उजास है बसा आँख में
वही बने यादों की मंज़िल

उधर यक्षपुर
इधर रामगिरि
दोनों ओर दियों का मेला

- कुमार रवीन्द्र
२० अक्तूबर २०१४

   

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