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भादों में घनघोर
 

 

करवट-करवट घन उधर, इधर सरस दृग-कोर।
पोर-पोर की चाहना, भादों में घनघोर।

नये-नये कॉलेज का बारिश भीगा रूप।
खिल-खिल हँसती, चीखती, फूड-कोर्ट में धूप।

इस सावन सब हो रहे, वादे ओवरहॉल।
मोबाइल के दौर में, ना मैसज ना कॉल॥

टैरिस पर आयी जभी बरखा लिये फुहार।
बालकनी से धूप ने लूटी खूब बहार।

धूप-छाँव, बदली-हवा, खेत-पसीना-दाघ।
पड़ा-पड़ा मन बाँचता, वही भड्डरी-घाघ।

निर्मोही मन हो गया, क्या हो फिर अहसास?
यही मेघ था मीत तब, यही मेघ अब त्रास।

रोम-रोम चपला बसी, घन गदरायी देह।
सतत झिहरती झींसियाँ, चाह रेह की रेह।

- सौरभ पाण्डेय
२८ जुलाई २०१४

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