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रेशमी बूँदें
 

 

रेशमी बूँदें
कजरे बदरा से
वर्षा की यूँ झरती
मोती हों जैसे
धरा पर गिरके
फूलों में जा जड्तीं

मन मौसम
ठंडी हवाओं में था
सावनी मौसम सा
उडा उडा सा
फूलों पे तितली सा


शोर मचाता
बादल आता
मुरझाया चेहरा खिल जाता
पावन शीतल पवन बोलती
पातों को अनुनादित करती


जल बूंदें तो
गंगा जल हैं
बिन जल के
कैसा कल है ?


वीतरागी पाखियों ने
बून कर छंदों से गीत
नीरव नभ पर
उमड़ घुमड़ कर
फिर की चिरौरी


सनन सनन करती
आषाढी बदलियाँ देख
धरा ने हरियाली की
चुनरिया खोली !

- डॉ सरस्वती माथुर
२८ जुलाई २०१४

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