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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

हथिया नक्षत्र   




हथिया इस बार भी नहीं बरसा
टकटकी लगाए देखते रहे
खेतों के प्यासे-पपड़ाए होंठ।

मोतियाबिंद से धुँधलाई आँखों से
खाली-खाली आकाश ताक रहे हैं जवाहिर चा'
और बुदबुदा रहे हैं-
हथिया इस बार भी नहीं बरसा।
लगता है आसमान में कहीं अटक गया है
जैसे भटक जाते हैं गाँव के लड़के
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, जाकर।
-ये कयामत के आसार हैं मियाँ
बात में लग्गी लगाते हैं सुलेमान खाँ
हथया का न बरसना मामूली बात नहीं है जनबा
अब तो गोया आसमान से बरसेगी आग
और धरती से सूख जाएगी दूब।

हथिया का न बरसना
सिर्फ़ जवाहिर चा'
और सुलेमान खाँ की चिंता नहीं है
हथिया का न बरसना
भूख के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है।
जवाहिर चा और सुलेमान खाँ नहीं जानते हैं
कि हथिया एक नक्षत्र है
बाकी छब्बीस नक्षत्रों की तरह
जिनकी गणना
पंडित रामजी तिवारी की पोथियों में बंद है।
हथिया मनमौजी है
वह कोई बंदिश नहीं मानता
दुनिया के रंगबिरंगे नक्शे में
नहीं पहचानता है हिंदुस्तान,
बर्मा या पाकिस्तान
वह नहीं देखता है
हिंदू, सिक्ख, क्रिस्तान या मुसलमान
वह बरसता है तो सबपर
चाहे वह उसर हो या उपजाउ धनखर।
वह लेखपाल की खसरा-खतौनी की
धज्जियाँ उड़ा देता है
न ही वह डरता है
बी.डी.ओ. और तहसीलदार की
गुर्राती हुई जीप से।

कभी फ़ुर्सत मिले तो देखना
बिल्कुल मस्ताए हाथी की तरह दीखता है
मूसलाधार बरसता हुआ हथिया नक्षत्र।

जवाहिर चा' और सुलेमान खाँ को
प्रभावित नहीं कर सकता है
मेरा काव्यात्मक हथिया नक्षत्र
वे अच्छी तरह जानते हैं
हथिया के न बरसने का वास्तविक अर्थ।
हथिया के न बरसने का अर्थ है
धान की लहलहाती फसल की अकाल मृत्यु
हथिया के न बरसने का अर्थ है
कोठार और कुनबे का खाली पेट
हथिया के न बरसने का अर्थ है
जीवन और जगत का अर्थहीन हो जाना।

विद्वतजन!
मुझे क्षमा करें
मैं सही शब्दों को ग़लत दिशा में मोड़ रहा हूँ
मुझे हथिया नक्षत्र पर नहीं
बटलोई में पकते हुए भात पर
कविता लिखनी चाहिए।

- सिद्धेश्वर सिंह
20. अगस्त 2005

  

लो आ गया चौमास

बदरिया बरसी-
कि जैसे खो गया
घास में फिर
घाम का इतिहास
लो आ गया चौमास!

नखत अद्रा
फिर सहेजे धनखरी को
सुआपंखी-सी
धनहिया मेड़,
लेव देती गुजरिया ने
साँवरे की
ओट कर के
दिया कजरी छेड़,
भरे भादों
डूबती उतरा रही
नदी नाले एक कलछुल प्यास!
लो आ गया चौमास!

छीन लड्डू नींद के
भर कर चिकोटी
हुई चंपत चुलबुली बौछार,
भैरमा की
गिर गई झरियार में
सात पुश्तों की
गली दीवार,
रात बूढ़े छप्परों पर-
गाँव के
नासपीटा
फट पड़ा आकाश!

मेह का पा नेह
टुटही नदी की
फैलती बाहें
पियासी रेत पर,
धान काकुन गोड़ते
गाढ़े दिनों में
गीत कोहबर के
उगे फिर खेत पर
रस प्रिया की-
प्रेम पाती ले उड़ा
मेघ चिठ्ठीरसा पी के पास!
लो आ गया चौमास!

- रवि शंकर
20 अगस्त 2005

ममता

बादलों की बेटी
वर्षा के झूले पर
धरती पर आई
कच्ची माटी के आँगन में
पोर-पोर समाई।

पर बदले रूप में
बड़ी ही इठलाई
जब पकी ईटों पर आई
वही बूँद,
बूँद-बूँद छितराई।

ममता भी
कभी रूप बदलती है
कभी शालीन
कभी उन्मुक्त होती है।

उसकी गाथा
उसके मिलन पर
उसकी अनुभूति होती है।

- केशरी नाथ त्रिपाठी
04 सितंबर 2001