दुआरे पर वसंत
              - डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल

 

पीत बरन
चेहरे पर
छाया है थकान का साया
कब से खड़ा बसंत दुआरे
मन में सकुचाया

फोन किया है
लड़के ने
कुछ उखड़ा-उखड़ा है
लगी नौकरी छूट रही है
उसका दुखड़ा है

यहाँ बहू का मुखड़ा
कुछ ज्यादा ही मुरझाया

मटमैली सी
धूल चढ़ी
गेंदों के फूलों पर
और दिख रही जंग
गैस के दोनों चूल्हों पर

धुआँ उठा आँगन से
जाकर मन में गहराया

लौट रही
बिटिया कॉलेज से
डरी हुई सहमी
रोज मिलें उसको रस्ते में
कुछ पागल वहमी

दरवाजे का आम
अचानक फिर से बौराया

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter