काम अभी तो बहुत पड़े हैं
              - सीमा अग्रवाल

 

चल, हट रे! चंचल वसंत
क्यों करे ठिठोली
घर है राह जोहता

झाड़-बुहारी कर शुभ को न्यौतूँ
अगरू महकाऊँ
चलूँ सूर्य की अगवानी को
वंदनवार सजाऊँ
चुप चुप सी है खड़ी रसोई
ज़रा इसे सहला लूँ
तनिक नेह की आँच अगोरूँ
चूल्हे को सुलगा लूँ

खड़ा हुआ रस्ता छेके
जाने दे, हमको
यह सब नहीं सोहता

अभी अलगनी ने लहरा कर
कहा 'इधर तो आओ'
आँगन में चिड़िया गुहारती
‘दाना तो दे जाओ’
चार-दिवारी की आँखों में
कई कई बातें हैं
अभी हमारी मौन तपस्या की
अनगिन रातें हैं

अभी नहीं फ़ुर्सत, सचमुच
रह रह कर क्यों तू
मन की थाह टोहता

अभी खोटनी है प्रश्नों की
कितनी खरपतवारें
कर्तव्यों की फुलवारी कह
तुझ पर कैसे वारें
दिया कभी जो समय, समय ने
स्वयं पुकारेंगे हम
आना उस दम मीत दौड़ कर
हो उजास या हो तम

कह देंगे उस दिन हम
भर आलिंगन,
‘हमको तेरा रंग मोहता’

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