जलेबी की तरह

 

 
जलेबी की तरह उलझी हुई है ज़िंदगी अपनी
है कड़वी सी नहीं मीठी हुई है ज़िंदगी अपनी

परत जितनी भी खोलूँ मैं भरी है चाशनी सब में
कड़क लगती मगर मिश्री हुई है ज़िंदगी अपनी

मैं चक्कर में फँसी इसके मैं फँसती हूँ संभलती हूँ
बहुत हैं पेंच पर संभली हुई है ज़िंदगी अपनी

सुनहरा रंग है इसका झलक सोने की पायी है
सुनहरी चाशनी डूबी हुई है ज़िन्दगी अपनी

दिखाना चाहती हूँ दर्द जो हैं चाशनी जैसे
हुई बीनाई कम अंधी हुई है ज़िंदगी अपनी

फिसलती है बहुत चिकनी लगेगी तुमको ये ‘आभा’
कठिन है राह और फिसली हुई है ज़िन्दगी अपनी

- आभा सक्सेना ‘दूनवी’
१ अप्रैल २०२२

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