जलेबी - प्यार

 

 
जब कभी एकाकी होती हूँ
तो सोचती हूँ-

कि वक़्त की इस
खौलती कड़ाही में
सामाजिक दवाबों
से निचुड़कर मैं कैसे निकलती?
.
दिन ओ' रात के बीच घूमती
यह, टेढ़ी-मेढ़ी सी ज़िन्दगी
कितनी नीरस और
बेमानी होती?

अगर
वक़्त की खौलती कड़ाही
में नीरस बेमानी होती
मेरी जिंदगी को

तुमने अपने प्यार की चाशनी में डुबोकर
'जलेबी' सा मीठा न
बना दिया होता।

- मंजु महिमा
१ अप्रैल २०२२

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