बंदनवार जलेबी

 

 
हर कोई सानिध्य तुम्हारा पाना चाहे
जिसने चखा न स्वाद
उसे धिक्कार जलेबी

वृत्तावृत से घिरी भरे हो अंतर मृदुजल
तृप्त हृदय को कर देतीं काया है पिंगल
मेरे जैसा है तेरा
किरदार जलेबी

गर्म नदी में तपकर निकलीं तब निखरी हो
मधुमेहो से ग्रस्त जनो की भी मिसरी हो
हर कोई करना चाहे
ज्योनार जलेबी

धाक जमा रक्खी है उत्तर से पश्चिम तक
रूप आचरण से सम्मोहित करतीं हो हदतक
तुम लगती शुभदिन का
बंदनवार जलेबी

- आदर्शिनी श्रीवास्तव
१ अप्रैल २०२२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter