सबसे बढ़कर

 

 
कहने को हूँ एक मिठाई
पर कहती दुनिया अक्सर
"तेरा नहीं जवाब जलेबी''
तू तो है सबसे बढ़कर

सुघड़ हाथ ने गढ़ी अगढ़ सी
रंग रूप तप के पाया
रखी डुबा कर रस भरने को
मधुरस में अपनी काया
यूँ ही नहीं बनाते सबको
दीवाना मेरे चक्कर

सीधी सरल सदा स्वभाव से
वलयाकार मगर रचना
देख सभी ललचायें मुझको
चाहें अनायास चखना
सौंधी सी खुश्बू से मेरी
कौन भला जाए बचकर

कहीं समोसे की घरवाली
कहीं प्रेयसी पोहे की
श्वेत कहीं मैदे के कारण
श्याम कहीं छवि खोए की
रंग-रूप का भेद न करना
स्वाद जरा देखो चखकर

- अमित खरे
१ अप्रैल २०२२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter