मन है आज जलेबी जैसा

 

 
उलझा-उलझा मीठा-मीठा
मन है आज
जलेबी जैसा

कौंध रहे कुछ सखा-सहेली
बचपन वाले खेल
भाग रहे कुछ कंचे लेकर
चला रहे कुछ रेल
दही सरीखी
यादें सौंधी
मौसम का है जादू ऐसा

जैसे शीरा बिलकुल वैसे
अम्मा का था प्यार
डाँटा करते बाबू जी फिर
देते तनिक दुलार
जी पाता फिर
उन्हीं पलों को
काश कहीं कुछ होता ऐसा

नीर पराया हवा परायी
छूट गया है देस
तेज़ बहुत रफ़्तार समय की
काट रहा परदेस
फीकी सारी
स्वर्ण गिन्नियाँ
भारी छुटपन का दस पैसा

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर'
१ अप्रैल २०२२

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