चलन ये चाय का 

 
सवेरे साँझ पी लो चाय
जब भी मन करे पी लो
करो स्वागत इसी से
आपके घर कोई आता है

पिलाओ चाय ये सत्कार का
परखा तरीका है
किसी के मान का मनुहार का
सुंदर सलीका है
सुलझते हैं कई मसले
बुलाओ चाय पर उनको
बनी हों दूरियाँ जिनसे
मनाओ चाय पर उनको
चलन ये चाय का मित्रों
हृदय को ख़ूब भाता है

मिले जो चाय का प्याला
तरोताज़ा बना देता
घुटन मस्तिष्क की मिटती
विचारों को हवा देता
उतरती नींद की ज़िद्दी ख़ुमारी
चाय से मितवा
बरसता हो झमाझम मेह
साथी चाय क्या कहना
बहुत आभार जो भी
चाय के पौधे उगाता है

- सीमा हरि शर्मा
१ जुलाई २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter