मातृभाषा के प्रति


नवगीत का उन्वान है हिन्दी

हमारी प्रगति के नवगीत का
उन्वान है हिंदी
अशिक्षा मूढ़ता के श्राप का
निर्वान है हिंदी

अंगूठाटेक सदियों को
अभी भी याद हैं दुर्दिन
विधाता ने बनाये भाल उनके
भाग्य रेखा बिन
कबूतर 'क' से पढ़ते ही
निविड़ तम की निशा भागी
दिगंतर और अंतर में
प्रभा कौंधी सुबह जागी
मनीषी त्यागियों के त्याग का
वरदान है हिंदी

सलोनी विश्वमोहिनि
मातृभाषा विश्वरूपा सी
विविध रस छंद भूषन
भावयुत कामिनि अनूपा सी
कहीं ब्रजमाधुरी मगधी
खड़ी बोली के सुर बोले
कहीं मैथिलि कहीं अवधी
के कल कंठों में रस घोले
कभी खुसरो की मुकरी की
बनी थी जान ये हिंदी

यही है सा रे मा पा गा
यही है लोक स्वर लहरी
विदा के गीत सोहर फाग
विरहा सावनी कजरी
यही कबिरा बिहारी जायसी
केशव का उपवन है
यही बच्चन निराला सूर तुलसी
का रतन धन है
हमारी कल्पना का उच्चतम
सोपान है हिंदी

रामशंकर वर्मा
१० सितंबर २०१२

 

 

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