मातृभाषा के प्रति

 

 

 

 

मन को गाओ तो हिन्दी में

तुम बतियाओ तो हिन्दी में, मन को गाओ तो हिन्दी में,
अहिन्दी सरीखा शब्द नहीं, यह समझाओ तो हिन्दी में।

हिन्दी तो पावन गंगा है, सदियों से बहती आई है।
तमिल तेलगू-मलयालम में, बँगला में रहती आई है।
पंजाबी तेवर में हिन्दी, गुजराती जेवर में हिन्दी।
राजस्थानी के घर जैसे, हो मीठे घेवर में हिन्दी।
हिन्दी तो अमृतवाणी है, भाषाओं की रजधानी है।
इस तट से उस तट तक फैली, हिन्दी तो बहता पानी है।
तुम साथ दिखो तो हिन्दी में, समझो-परखो तो हिन्दी में
शृंगार करो, अभिसार करो, तुम प्रेम लिखो तो हिन्दी में।

तुलसी के रामचरित में भी, केशव के कविता कानन में,
सूरा के कान्हा-गोपिन में, हिन्दी मीरा के मोहन में।
हिन्दी है संत समागम में, जनवाणी से हर आश्रम में,
तुकाराम-नरसी रवीन्द्र के भजनों में भी, है गीतम में।
यह प्रेमचंद की हस्ती है, प्रसाद-काव्य की मस्ती है,
पंत-महादेवी-बच्चन की, यह महाप्राण की बस्ती में।
तुम मुखर रहो तो हिन्दी में, तुम प्रखर रहो तो हिन्दी में,
इसका सिंहासन अडिग यहाँ, तुम शिखर रहो तो हिन्दी में।

यह पूरब में, यह पश्चिम में, दक्खिन-उत्तर के कण-कण में,
अनुभूति ओर अभिव्यक्ति में, हिन्दी चिंतन के हर क्षण में।
छाई गीतों की गुंजन में, हिन्दी यौवन के सावन में,
अपनी फगुनाहट रखती है, जैसे तो हिन्दी फागुन में।
हिन्दी हम सब की बोली है, यह पूरे भारत की भाषा,
भारतवासी की अभिलाषा, यह जन जीवन की परिभाषा।
साहित्य फला है हिन्दी में, गंतव्य मिला है हिन्दी में,
सारा जग आलोकित जिससे वह दीप जला है हिन्दी में।

- तारादत्त निर्विरोध
९ सितंबर २०१३

 

   

 

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