दिन मुबारक हो न पाये

वो सितम्बर माह, तिथि चौदह
बहस में 'देश-भाषा!'
बिन्दु हिन्दी हित रखे थे
वे प्रहारक हो न पाये
दिन मुबारक हो न पाये।

इंगितों में छल पगा था
छद्म-चर्चा या जुआ था?
सांसदों का पाठ था, या
शातिराना मज्मुआ था!
राष्ट्र के जन-कंठ ने किस
द्रोह की कीमत चुकायी
आमजन अब पूछता है
'बोलिये तब क्या हुआ था?’

संविधानी उन सभाओं के
पटल का सत्य सुनिये-
शब्द-भाषा के धुरंधर
शक्त-कारक हो न पाये!
दिन मुबारक हो न पाये।

'राज एवं काज की भाषा
सभी’ शीर्षक वहाँ था
शब्द भी प्रस्तावना में
'राष्ट्र-भाषा' का कहाँ था?
एक सूची 'राजभाषाएँ’
गिनाती आ गयी जब
मध्य उनके एक 'हिन्दी’
नाम भी 'शोभित’जहाँ था!

'राष्ट्रभाषा’, 'राजभाषा’
'अंचलों की भिन्न भाषा’
तथ्य यों उलझे कि सारे
कथ्य मारक हो न पाये!
दिन मुबारक हो न पाये।

बुद्धि एवं भावना को
साधती जो दिख रही थी
देश की स्वातंत्र्य-गाथा
जो मुखर हो लिख रही थी
'हो वही अब देश-भाषा’
पर न कोई एक मत था
विन्दुवत चर्चा परे थी
और हो 'चिख-चिख’रही थी

क्रूरतम यह छल हुआ है
देश की जन-भावना से
सोच ले परिहार इसका
वो विचारक हो न पाये!
दिन मुबारक हो न पाये।

- सौरभ पाण्डेय
१ सितंबर २०१५

 

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