मातृभाषा के प्रति


मातृभाषा (क्षणिकाएँ)

जब किया बोलने का
प्रथम प्रयास
शब्द मेरी ही झोली से लिए
दुःख और क्रोध में
तुमने,
मेरा ही दामन थमा
तुम्हारी भावनाएँ
मुझसे लिपट के बहीं
अब
मुझे पकड़ा कर लाठी
क्या तुम
सीधे चल पाओगे ?
-०-

हमें पूर्वजों ने
हिन्दी की लहलहाती फसल दी
हमने न सीचा, न खाद डाली
ना ही खर पतवार निकला
कुम्हलाती हुई वो बोली
यदि मुरझा गई मै
तो क्या
अपने बच्चों को
सूखी नदी थमाओगे ?
-०-

सुनो हिन्दी
हमने तुम्हे
राजकीय काम काज में रखा है
विशेष अवसरों पर
करते हैं तुम्हारा उपयोग
तुमको संजोया है ग्रंथो में ,
शब्दकोशों में
वो बिदक गई
बोली
इन बाल खिलौने से
मुझे ना बहलाओ
मुझे बसा सको तो
ह्रदय में बसाओ
अपना मान बना कर
-०-

अपने ही घर में
उपेक्षित वो
कभी आँगन में
दुबकी रहती
कभी छज्जे पर दिखती
वो विशेष अवसरों पर
ढूँढ़ कर लाई जाती
एक रोज
सड़क पर मिली
पूछ कौन हो
कहा उसने 'तुम्हारी मातृभाषा'
-०-

विदेश में जन्मे
पोते पोतियों के लिए
सजाते हुए घर
उसने कहा
सुनो
क्या समझ पाएँगे
उनकी बात हम ?
क्या वो बोलेंगे हिंदी ?

-रचना श्रीवास्तव
१२ सितंबर २०११

 

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