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पिता के लिये
पिता को समर्पित कविताओं का संकलन
 

 

अब समझा हूँ मैं

याद है मुझे
तुम डाँटकर, डराकर सिखाते थे मुझे तैरना
और मैं डरता था पानी से
मैं सोचता...बाबूजी पत्थर हैं!
इसी पानी में तुम्हारी अस्थियाँ बहाईं
तब समझा हूँ...
तैरना ज़रूरी है इस दुनिया में!
बाबा...मैं तैर नहीं पाता
आ जाओ वापस सिखा दो मुझे तैरना
वरना दुनिया डुबो देगी मुझे!

बाबा..अब समझा हूँ मैं
थाली में जूठा छोड़ने पर नाराज़गी,
पेंसिल गुमने पर फटकार,
और इम्तहान के वक़्त केबल निकलवाने का मतलब!
कुढ़ता था मैं...बाबूजी गंदे हैं!
मेरी खुशी बर्दाश्त नहीं इनको
अब समझा हूँ तुम्हें जब नहीं हो तुम!

तुम दोस्त नहीं थे मेरे माँ की तरह..
पर समझते थे वो सब जो माँ नहीं समझती
देर रात, दबे पाँव आता था मैं
अपने बिस्तर पर पड़े छुपकर मुस्कुरा देते थे तुम
तुमसे डरता था मैं!
बाबा, तुम्हारा नाम लेकर अब नहीं डराती माँ
नहीं कहती बाबूजी से बोलूँगी
बस एक टाइम खाना खाती है!

बाबा, याद है मुझे
जब सिर में टाँकें आए थे
तुम्हारी हड़बड़ाहट, पुचकार रहे थे तुम मुझे
तब मैंने माँ देखी थी तुममें!
विश्वास हुआ था मुझे माँ की बात पर
बाबूजी बहुत चाहते हैं तुझे
आकर चूमते हैं तेरा माथा जब सो जाता है तू!
बाबा,
तुम कहानी क्यों नहीं सुनाते थे?
मैं रोता माँ के पास सोने को
और तुम करवट लेकर
ज़ोर से आँखें बंद कर लेते!
तुम्हारी चिता को आग दी
तबसे बदली-सी लगती है दुनिया
बाबा..
तुमने हाथ कभी नहीं फेरा
अब समझा हूँ तुम्हारा हाथ हमेशा था
मेरे सिर पर!
कल रात माँ रो पड़ी उधेड़ती चली गई .
तुम्हारे प्रेम की गुदड़ी यादों की रूई निकाली
फिर धुनककर सिल दी वापस!

बाबा,
तुम्हारा गुनहगार हूँ मैं नहीं समझा तुम्हें..
तुमने भी तो नहीं बताया
कैसे भरी थी मेरी फीस!
देखो, दादी के पुराने कंगन छुड़वा लिए हैं मैंने
जिन्हें गिरवी रखा था तुमने
मेरे लिए!
बाबा! मैं रोता था अक्सर
यह सोचकर, बाबूजी गले नहीं लगाते मुझे
अब समझा हूँ सिर्फ़ जतलाने से प्यार नहीं होता!
बाबा! आ जाओ वापस
तुमसे लिपटकरजी भर के रोना है मुझे एक बार
बाबा...अब समझा हूँ तुम्हें जब नहीं हो तुम!!

- विपुल शुक्ला
१५ सिंतंबर २०१४

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