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पिता के लिये
पिता को समर्पित कविताओं का संकलन
 

   


पिता रूप में

पिता रूप में समझ रहा हूँ
कितना मुश्किल सधकर चलना

डटकर रहना
जग-जीवन की निष्ठुरता में
जीवन-संगिनी की
आशाओं की
मनहर पंखुड़ियाँ महकें
साथ हमारा
नहीं सुनिश्चित कर पाता है
कब हम सहमें
कब हम चहकें
पिता रूप में
समझ रहा हूँ
कैसे हम जीते रहते हैं
संबंधों की अनगढ़ता में

इतनी आशंकाएँ
कि जितनी
उल्काएँ होती हैं नभ में
अक्सर घर-खुशियों पर
मँडराया करती हैं
बेपर की
आवारा नज़्में
पिता रूप में
समझ रहा हूँ
कितना अंतर्द्वंद्व बसा है
मोह-भरे मन की ममता में

लगता पल-पल
धड़क रहे इन रोमों में
मेरे पुरखे हैं
जिनके सपने
नित्य नए परिणाम जगाते
मुझमें टूटे
और बने हैं
पिता रूप में
समझ रहा हूँ
कितनी गतियाँ छुपी हुई हैं
रिश्तों-नातों की जड़ता में

- अश्विनी कुमार विष्णु
१५ सिंतंबर २०१४

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