इस भोग वाले
संसार में
बिना भोगे
चले गए एक दिन पिता
धूँ धूँ करती चिता के
धुएँ में विलीन होती है
उनकी छवि
जो मिटाए नहीं मिटती
उन्होंने अपनी लघुता का
जीवन में अंत कर दिया था
अनंत के विस्तार के लिए
यही विश्वास दिया था
हमें उत्तराधिकार में
अब घर के
एक कोने में पड़ा है टूटा आइना
गुज़र जाता है वहाँ से
हर शख्स
चुपचाप
- अशोक वाजपेयी
|