| सड़कचल रही है मेरे संग
 तब से
 जब मैंने सीखा था चलना।
 उँगलियाँ थामे हुएअपने पिता की,
 कुछ हर्षित-सा
 कुछ भयभीत-सा
 मैंने सीखा था चलना।
 आज जब चल पाता हूँबिन पकड़े उँगलियाँ,
 ज़रूरत महसूस होती है
 और भी अधिक।
 ज़्यादा सक्षम हूँ,बचपन के मुकाबले
 कहीं ज़्यादा,
 पर भय का रूप
 नहीं बदला है,
 हाँ, विस्तार हो गया है।
 बचपन में जबगिर जाता था चलते-चलते,
 आँसू छलक आते थे,
 पर पिता के संग होने से
 हौसला रहता था।
 पिता द्वारा
 ''मेरा बहादुर बेटा''
 कहने भर से चुप हो जाता था।
 आज पिता के सामनेनहीं बाँट पाता
 अपना दर्द
 जब सशक्त होनी
 चाहिए थी
 मेरी उँगलियाँ,
 जिन्हें थामकर
 पिता को गर्व होता-
 ढूँढ रहा हूँ अपना मुकाम,ताकि एक दिन
 पिता को देख सकूँ
 गर्व करता हुआ
 मुझ पर,
 जिससे जुड़े स्वप्न
 हिस्सा हैं
 उनके जीवन का।
 --दीपक कुमार९ जून २००८
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