वही खड़ाऊँ

 
वही खड़ाऊँ जनता के
हाथों में दे दो राम
जिसे बिठाकर सिंहासन पर
किया भरत ने काम

कैण्डल-मार्च हरे तो कैसे
अभया का भय-भार?
सीताहरण सुनायी देता
सरहद के भी पार

मीठे स्वर में कौन सुने
मर्यादा का पैग़ाम

तपरत ऋषिगण खेत-मेंड़
मिल-दफ़्तर या दूकान
बारूदी विघ्नों पर उछले
दहशत के उन्वान

सब रक्तिम वाक्यों पर
जड़ देना है पूर्ण-विराम

लोकतंत्र की भव्य इमारत
और बाहुबल नींव
जीता बालि इलेक्शन हरदम
हार गया सुग्रीव

चूसा गया हमेशा कसकर
वही आदमी आम

- रविशंकर मिश्र 
१ अप्रैल २०१९२२ अप्रैल २०१३

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