भटक रहे हैं राम जी

 
राम, राम, क्यों हत हुआ, शबरी का विश्वास
हारी थकी चली गई, लिए दीर्घ निश्वास

झूठे बेर चखे नहीं, नहीं लखन का साथ
भटक रहे हैं राम जी, अपनों के ही हाथ

घाट-घाट पर कैकयी, भरत लगाये घात
घर से बेघर हो रहे, फिर से बिछी बिसात

धर्म सदी से सो रहा, सरयू बहे उदास
दशरथ की भी कामना, जिऊँ हजारों मास

जंगल में कंक्रीट के, सीता को मत खोज
सोन हिरन की खोज में स्वयं भटकती रोज

गली गली रावण बसे पहन राम का वेश
प्रभुजी अस्त न हो कभी सूर्य वंश का देश

धर्म युद्ध अब छेड़ दो, कर अधर्म का नाश
परिवर्तन इस देश में, नहीं आ रहा रास

- त्रिलोचना कौर  
१ अप्रैल २०१९२२ अप्रैल २०१३

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