हे राम सृष्टि विपदा में है

 
  हे राम सृष्टि विपदा में है
तुम छोड़ सिंहासन वन आओ

नर जीव अधम ने कर डाला
वसुधा का गौरव छिन्न- भिन्न
कण-कण पर तांडव डोल रहा
शिव के मस्तक तक जा अभिन्न

हे वन देवी के देव त्वरित
ले वाण-धनुष साधन आओ

दो नदी आँख की भर आयीं
वसुधा की नदियाँ सूख गयीं
हिरदय पाषाण सरीखा अब
पर्वत तक उगती ऊख गयीं

सब जीव- जन्तु जंगल बिफरे
प्रतिशोध मिटाने घन आओ

मैं भूमि सुता धरती उपजी
तुम भी वन में ही मुझे मिले
वन में ही मानव-प्रीति हँसी
मानवता बोयी रूप खिले

जन अधम विनाशक रोग-भोग का
पार लगाने 'मन' आओ

- शीला पांडे
१ अप्रैल २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter