गगन विचरते मेघ (दोहे)

वर्षा मंगल
 

गगन विचरते मेघ ये, गढ़ते गहरी छाँव
सावन की ठहरी अदा, बह गए कितने गाँव

खूब चमकती बिजलियाँ, पवन मचाता शोर
साजन बसे विदेश में, भरे नयन के कोर

अभय विचरते मीन हैं, दादुर के हैं फाग
गाय रंभाकर थक गई, बछड़े के खुर नाग

शहर सेंकता रौशनी, तले पकौड़े, चाय
मित्र सजाएँ मंडली, मन हरषित हो जाय

जा रे कारे बादरा, अइयो ना इस देश
चूल्हा अब कैसे जले, बरसे मेघ अशेष

-राजेश कुमार झा
३० जुलाई २०१२

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