वर्षा में जाना पड़ा (दोहे)

वर्षा मंगल
 

धो डाले कपड़े सभी, दिन था जब इतवार
अब तक वे सूखे नहीं, दिवस हो गये चार

ज्यों ही निकली धूप तो, रखा सूखने माल
वानर टोली आ गई, चट कर डाली दाल

वर्षा में जाना पडा, था आवश्यक काम
वापस आये तो हुआ, नजला और जुकाम

टपके पानी छत्त से, कमरे मेँ चहुँ ओर
सो न सके हम रात भर, जब तक हुई न भोर

सावन में जाने लगे, साजन यदि परदेस
रस्से से बाँधो उसे, लगे न मन में ठेस

सावन में आएँ नहीं, साजन अपने द्वार
बीमारी का झूठ ही, भेजो उनको तार

इस मौसम में यदि मिलें, गर्म पकौडे चाय
सच मानो बरसात का, बहुत मज़ा आ जाय

-शरद तैलंग
३० जुलाई २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter