फागुन मचा है
              - डॉ. हरिमोहन

 

देह के
इस फूल में
फागुन मचा है

बँधी थी
अब तलक
कस्तूरी गंध वह -
फैली दस दिशाओं में
भटकती सूनी
हवाओं में
फागुन बसा है

पलाश फूले
या आग फैली
जले दिये
क्षितिज के पार तक
हिय थाल और
सुघड़ बाहों में
फागुन सजा है

आँखों में
ठहरे अभी तक
न जाने कितने सपन
दरपन देखती
निगाहों में
फागुन रचा है

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