वासन्ती पाहुन
              - शशि पाधा

 

सुना है पूरब देस कहीं
धरती ने द्वार सजाया है
पश्चिम से कोई आया है

काँपी सिहरी शीत सहा
सूरज से कुछ भी न कहा
बंद हुई न नयन ड्योढ़ी
बूँद बूँद कर नेह बहा
       हो गई गीली धूप गुनगुनी
       किरणों ने जाल बिछाया है
       कोई अपना लौट के आया है

गदराई सरसों की डाली
झूमे डोले पाँव धरे
कोकिल कुछ मदमाती सी
गीतों में ही बात करे
       खिल गई बगिया जूही चम्पा
       अम्बुआ भी बौराया है
       परदेसी लौट के आया है

मन की कलसी धोई–पोंछी
घोला धानी पीला रंग
लाल गुलाबी पुड़िया छिटकी
रंग ली चुनरी सातों रंग
       नथनी की तो पूछो ना ही
       मोती खुद जड़वाया है
       वासन्ती पाहुन आया है

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