बस चुस्कियाँ हों

 

 
बारिशें हों, गर्मियाँ हों, सर्दियाँ हों
चाय की हर हाल में, बस चुस्कियाँ हों

हाथ में अख़बार हो, तुम सामने हो
तो समझिए हर सुबह अपनी गुलाबी
घूंट जैसे ही उतरते हैं गले में
यूँ कहो, बस ठाठ हो जाते नवाबी

काश! पीते वक्त तिरछी कनखियाँ हों
चाय की हर हाल में बस, चुस्कियाँ हों

मुस्कुराकर हाथ में जब मग पकड़ते
रंग कुछ दिखता अलग ही ताजगी का
आँख में डोरे छिटकते हैं खुशी के
पूछना पड़ता पता नाराजगी का

हाय! ऐसे में पुरानी चिट्ठियाँ हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियाँ हों

भाप में लो, उड़ गईं सब वेदनाएँ
और मचलीं जिस्म में अँगड़ाइयाँ फिर
मन हुआ काग़ज़ उठाएँ, पेन पकड़ें
और, लिख दें चाय पर रूबाइयाँ फिर

साथ में, फिर गीत की कुछ पंक्तियाँ हों
चाय की हर हाल में, बस चुस्कियाँ हों

हाथ में 'ट्रे' चाय की जब से दिखी है
चिपचिपा मौसम बिचारा मुश्किलों में
गर्म लपटों की भला परवाह किसको
चाय भीतर तक बसी सबके दिलों में

यार! लम्बी उम्र की ये "पत्तियाँ" हों
चाय की हर हाल में, बस चुस्कियाँ हों

- दिनेश प्रभात
१ जुलाई २०२०

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