संवादों की नदी

 

 
कब चुप्पी का
हिम पिघलेगा
संवादों की नदी बहेगी

कोलाहल
को तरस गए हैं
गुरुकुल नन्हें गोपालो के
बिन चिड़ियों के
लुप्त हुए सब
उत्सव हरी-भरी डालों के
कब बोलेगी
लंबी घंटी
सुबह सरस वंदना कहेगी

दिन भी
मास्क पहनकर करता
धूप छाँह से देखो बातें
और चाँदनी
से कुछ दूरी
बरत रही हैं सारी रातें
समय तुम्हें-
सौगंध बताओ
कब तक ऐसी अग्नि दहेगी

ओढ़े हुए
तनाव निकलता
रोजी रोटी को श्रमजीवी
कुशल क्षेम की
माला जपती
थमे शोर में घर की देवी
कभी हमारे
आँगन में भी
खिली खिली-सी हँसी रहेगी

- रमेश गौतम
१ जून २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter