धूप के पाँव

 

धूप के पाँव 

सुरेन्द्र सुकुमार

 

ज्यों ही आँगन में पड़े जेठ धूप के पाँव
कोठे भीतर घुस गयी छोटी दुल्हन छाँव

वन कन्या सी झूमती गर्म हवा की देह
धरती लपटें छोड़ती पीपल बांटे नेह

चित्रकूट की दोपहर बड़ी दूर है शाम
मिट्टू कोटर में छुपे भूले सीता राम

एक पड़ोसन ढीठ सी जम कर बैठी धूप
और उदासी फटकती माथा टेके सूप

नीम निबौरी हो गए ये कड़ुए दिन रात
कठफोड़े की चोंच ज्यों करे घात पर घात

बूढ़ी माँ सी सूख कर नदी हुई बेहाल
होंठ किनारे पर जमे तपते हुए सवाल

पत्ती पत्ती से उठी फिर पुरवा की माँग
पगडंडी सूनी हुई ज्यों विधवा की माँग

बड़ी दूर सब हो गये पानी पनघट छाँव
झुलस गये हैं दूब के नन्हें नन्हें पाँव 

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