हिंदी हर मन में बसी


भारत भावों से भरा, भोले उसके लाल
मातृ भाव हम जानते, कहें फुलाके गाल।

भाषा तो भाषा रही, क्या हिन्दी क्या रोम
प्रकट रूप में भाव को, दर्शा ले हर कौम।

हिन्दी मन में सोचती, कैसा ये व्यापार
हमको नीचा मानता, प्रस्तर है संसार।

बेहद्दी मैदान बना, भावों का संसार
फसल लहकती हिन्द की, रसमय हो व्यापार

हृदय सिंधु में उपजते, भाव भरे उद्गार
मातृ भाष में गा उठे, गूँगा भी मल्हार।

कविता कवि औ कल्पना, रहें एक ही ठाँव
हिन्दी हर मन में बसी, जाति-जाति हर गाँव।

- कल्पना मिश्रा बाजपेई   
१ सितंबर २०१५

 

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