मातृभाषा के प्रति


क्यों हिंदी पर शर्म

बचा रहे इस देह में, स्वाभिमान का अंश।
रखो बचाकर इसलिए, निज भाषा का वंश॥

कथा, कहानी, लोरियां, थपकी, लाड़-दुलार।
अपनी भाषा के सिवा, और कहां ये प्यार॥

निज भाषा, निज देश पर, रहा जिन्हे अभिमान।
गाये हरदम वक्त ने, उनके ही जयगान॥

हिन्दी से जिनको मिला, पद-पैसा-सम्मान।
हिन्दी उनके वास्ते, मस्ती का सामान॥

सम्मेलन, संगोष्ठियां, पुरस्कार, पदनाम।
हिन्दी के हिस्से यही, धोखे, दर्द तमाम॥

हिन्दी की उंगली पकड़, जो पहुंचे दरबार।
हिंदी के 'पर' नोचते, बनकर वे सरकार॥

अंग्रेजी पर गर्व क्यों, क्यों हिन्दी पर शर्म।
सोचो इसके मायने, सोचो इसका मर्म॥

दफ्तर से दरबार तक, खून सभी का सर्द।
'जय' किससे जाकर कहे, हिन्दी अपना दर्द॥

- जय चक्रवर्ती
१२ सितंबर २०११

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter