राम नवमी के उपलक्ष्य में

 
थी पुलक उठी ममता मेरी
जब मेरे घर तू आया था
हुआ रोम रोम हर्षित मेरा
अनमोल रतन जो पाया था

बजती पैंजन और ठुमक चाल
मन निरख निरख भरमाया था
कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी दशरथ
हर एक का मन हुलसाया था

सजे श्याम वर्ण , चक्षु विशाल
ऐसी सम्मोहिनी डारी थी
सारी प्रजा, भावी राजा
के रूप गुणों पर वारी थी

पर ऐसा चला बाण नियति का
सारी आशाएँ चूर हुईं
उस वज्रघात की पीड़ा से
सबकी खुशियाँ काफूर हुईं

कोई भी नेत्र न अश्रु -रहित
हर ह्रदय पीर से फटा हुआ
केवल रुदन ही चहुँ और व्याप्त
हर शीश व्यथा से झुका हुआ

एक दबा हुआ आक्रोश भी था
क्यों भटकेंगे प्रभु बन बन में
महारानी ने जो किया पाप
ज्वाला बन धधक रहा मन में

लें राज करें इस निर्जन पर
सुख भोगें उस सिंहासन का
यह प्रजा भी नगरी छोड़ेगी
राजा बिन मोल नहीं जिसका

फिर समझाया किया शांत चित्त
भेजा नर नारी को तट से
चल पड़े वचन की गरिमा ले
ढृढ़ निश्चय और सच्चे मनसे

नियति ने खेल रचाया था
प्रभु को बनवास दिलाया था
शबरी, कबंध, अहिल्या सबके
उद्धार का क्षण जो आया था

महाज्ञानी पंडित रावण से
भी भेद न यह छिप पाया था
राक्षस विहीन करने जगको
अधिपति ने दाँव लगाया था

राक्षस योनि से मुक्ति का
बस एक विकल्प सूझा उसको
सीता को हरकर छल बल से
रावण ने ललकारा प्रभु को

कुल के विनाश का कारण बन
रावण ग्लानि से कातर था
पर पृथ्वी से इस शक्ति का
वह ह्रास करने को तत्पर था

श्रीराम के हाथों मृत्यु पा
था मोक्ष का स्वप्न भी पूर्ण हुआ
धर्म और नीति का गूढ़ ज्ञान
लक्ष्मण को दे उरिण हुआ

हो विजयी राम पहुँचे नगरी
था हर्षोल्लास बड़ा भारी
श्री राम का राज्याभिषेक देख
थी गदगद अयोध्या सारी

अपनी अद्वितीय शक्ति को
आजन्म वे जान नहीं पाए
मर्यादा को दे उच्च स्थान
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये

सरस दरबारी
२२ अप्रैल २०१३

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