सूखा सावन !

वर्षा मंगल
 

सूखा और ऐसा सूखा सावन
बरसे बिन ही छँटे मेह के घन !

पहरों-पहरों सिसकी-ससकी
आस लिए ढिबरी
रोती रही चदरिया ओढ़े
यादों की ठठरी
साँसों को काँधा देते क्रंदन !

सीली खिड़की दहल गई
यों शोर नए कड़के
तन में रातों ऊँघे-सोए
दर्द जगे तड़के
नस-नस में माथा-धुनते कंपन !

पपिहे के नीचे आकर
ज्यों विषधर लेट गया
पी-पी रटता कोमल सपना
आख़िर टूट गया
विफल गए सारे सागर-मंथन !!

-अश्विनी कुमार विष्णु
३० जुलाई २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter