वसंती हवा

एक गीत बसंत के स्वागतार्थ
--डॉ. अली अहमद अब्बास उम्मीद

 

फिर बसंत आया नये रंगों की सौगात लिये
सुर्खरू हो के पलट आया है ऋतु का लश्कर
शोख मौसम के कदम चूम रहे हैं पत्थर
सर्द मैदान में शब ने लगाया बिस्तर
खुश्क माहौल ने ओढ़ी है बसंती चादर
भूरी शाखों से नये फूल गले मिलते हैं।
दूर तक शोर है ख़्वाबों के कंवल खिलते हैं

यूँ तो हर पल है नए रंगों की सौगात लिए,
फिर भी धुँधले हैं मेरी जागती आंखों के दिये
लोग मदहोश हैं अब ज़ख्मे-जिगर कौन सिये

मैं कि शायर हूँ मेरी आँख में वो फूल भी हैं
जिनके रंगों ने हर एक राह को गुलनार किया
बदले हालात में शाखों को बहुत प्यार किया
दाम लगते थे मगर बिकने से इनकार किया

हाँ वही फूल जो रौशन थे सहर के मानिन्द
उनकी तक़दीर पे अब शाम की परछाई है

कैसे मानूँ कि बसंत आया है सौगात लिये
वो सभी फूल, वो शाख़ें, वो रविश, वो सबा
जिन ने मौसम की जवानी को दिया अपना लहू
उनके चेहरों पे है बदले हुए हालात की राख
दूर तक शोर है ख़्वाबों के कंवल खिलते हैं!
ये तो बतलाओ नये रंग किधर मिलते हैं!!

फिर बसंत आया नये रंगों की सौगात लिए
धुंधले-धुंधले हैं मेरी जागती आँखों के दिये

११ फरवरी २००८

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