वसंती हवा

 बासंती सपने
- रजनी भार्गव  

 

बसंत ने दस्तक दी
फूटी कोपलें अंगनाई
नुक्कड़ पर खड़ी हुई
बसंती बयार मुस्काई।

पलकों पर मंजरी
ख़्वाब बुन सकुचाई
नींद के पहरे अडिग
रात रही भरमाई।

तुम्हारी हथेली में
अंकुरित बासंती सपने
मेरी हथेली में उगते
रहे रतनारे सपने।

बसंती फुहार की नमी
सतह को छू गई गहरी
बहकी-सी बौराई-सी
पीली हुई फ़रवरी।

९ फरवरी २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter