वसंती हवा

साँझ फागुन की
रामानुज त्रिपाठी

 

फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों वनबीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने
दिवस मादक होश खोए लग रहे
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँआरी मंजरी
फिर कहीं टेसू के सुलगे अंग-अंग
लौट कर परदेश से चुपचाप फिर
बस गया कुसुमी लताओं पर अनंग
चुप खड़ी सरसों की गोरी-सी हथेली
डूब कर हल्दी में पीली हो गई।

फिर उड़ी रह-रह के आँगन में अबीर
फिर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल
छोड़ चंदन वन चली सपनों के गाँव
गंध कुंकुम के गले में बाँह डाल
और होने के लिए रंगों से लथपथ
रेशमी चूनर हठीली हो गई।

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter