विजयदशमी की कविताओं का संकलन
 

 

कुण्डलिया


कई दशानन देश में, पनप रहे हैं आज।
बालाएँ भयभीत हैं, फैला चौपट राज।
फैला चौपट राज, बसी अंधेर नगरिया,
पनघट नहीं सुरक्ष, किस तरह भरें गगरिया।
दीवारों में कैद, हो गए घर के आँगन,
पनप रहे हैं आज, देश में कई दशानन।


मन के जाले साफ कर, काटें कलुषित दोष।
रावण राज्य मिटाइए,करें विजय उद्घोष।
करें विजय उद्घोष, स्वार्थ की लंका तोड़ें,
यत्र, तत्र, सर्वत्र, राज्य खुशियों का जोड़ें।
दीप प्रेम के बाल, दिलों में करें उजाले,
काटें कलुषित दोष, साफ हों मन के जाले।


लंका गुपचुप स्वार्थ की, बाँध रहे बहु लोग।
रखा काल को कैद में, भोगें छप्प्न भोग।
भोगें छप्पन भोग, ह्रदय में पाप समाया,
रचा राम का स्वांग, धनुष पर बाण चढ़ाया।
पाकर खोटे वोट, बजाते इत-उत डंका,
बाँध रहे बहु लोग, स्वार्थ की गुपचुप लंका।


रावण ही बदनाम क्यों, मानव, मन से जान।
आज सुपथ को त्यागकर, भटका हर इंसान।
भटका हर इंसान, अराजकता है फैली,
छाया है आतंक, हो चुकी हवा विषैली।
दुहराता है वक्त, पुनः बातें सभी वही
क्यों है फिर बदनाम, भला केवल रावण ही।


विजया दशमी पर्व का, अर्थ बहुत है गूढ।
रावण के पुतले जला, खुश है मानव मूढ़।
खुश है मानव मूढ़, मगर क्या हक है उसको,
क्या वह उससे श्रेष्ठ, जलाना चाहे जिसको?
जिस दिन होगी मुक्त, पाप से पूर्ण यह ज़मीं,
उस दिन होगी मीत, वास्तविक विजया दशमी।

--कल्पना रामानी


 

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