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७. ७. २०१४

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धूप आगे बढ़ गई

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क्यों कंगूरों पर ठहरकर
धूप आगे बढ़ गयी
है कहाँ मध्यान्ह
संध्या देहरी पर चढ़ गयी

हर सुबह देखा तिमिर,
पीछे गया, आगे खड़ा है
आज बौनी सभ्यता का
आदमी कितना बड़ा है
नाप ही परछाइयों की
क्यों कहानी गढ़ गयी

हम विकल्पों में सदा
चिंतित रहे, आतुर रहे
और बस दो बूँद को
व्याकुल सभी अंकुर रहे
हर भविष्यत् की किरण
खाली हथेली पढ़ गयी

आज तो हर मोड़ पर
टकराव है या शोर है
क्या करे इन्सान, अपने
आप से ही चोर है
फटे पन्नों को मिलाकर
जिल्द जैसे मढ़ गयी

- जगदीश पंकज

इस सप्ताह

गीतों में-

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जगदीश पंकज

दिशांतर में-

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मधुप मोहता

छंदमुक्त में-

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शिज्जू शकूर

कुंडलिया में-

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कैलाश झा किंकर

पुनर्पाठ में-

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पवन कुमार शाक्य


पिछले सप्ताह
३० जून २०१४ के अंक में
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गीतों में-
प्रदीप कांत

अंजुमन में-अनिरुद्ध सेंगर

छंदमुक्त में-
नरेश अग्रवाल

कहमुकरी में-
आराधना द्विवेदी

पुनर्पाठ में-
पंकज कोहली

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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