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२०. ४. २०१५-

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पीर है ठहरी

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पीर है ठहरी ह्रदय में जाँचती
द्वन्द या दुविधा दृगों से बाँचती

आस के उत्कल बसन्ती थे कभी
रात ठहरी है भुजाओं में अभी
श्वास में खंजर
हवाएँ काँपतीं

प्रीत के पन्ने सभी निकले फटे
घाव थे कल तक दबे वे सब खुले
पट्टियाँ फिर भी
व्यथाएँ बाँधतीं

रोकती मुझको मेरी ही मर्जियाँ
दौड़ती है पसलियों में बर्छियाँ
दस्तकें फिर भी
कहा ना मानतीं

बंसवट तो है सुगंधों से लदे
हम कहीं गहरे कुँए में थे धँसे
दर्द कितना है
ये कैसे नापतीं  

- डॉ रंजना गुप्ता

 

इस सप्ताह

गीतों में-

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डॉ. रंजना गुप्ता

अंजुमन में-

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जयप्रकाश मिश्र

पाठकनामा में-

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आशा सहाय

हाइकु में-

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अवनीश सिंह चौहान

पुनर्पाठ में-

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स्मिता दारशेतकर

पिछले सप्ताह
१३ अप्रैल २०१५ के अंक में

गीतों में-
पवन प्रताप सिंह

अंजुमन में-मालिनी गौतम

छंदमुक्त में-
नीरज कुमार नीर

दोहों में-
टीकमचंद ढोडरिया

पुनर्पाठ में-
सीतेश चंद्र श्रीवास्तव

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
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