अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

सुधीर विद्यार्थी की
छोटी कविताएँ

 

 

नदी


नदी में उतरना चाहता हूँ
पर भीगना नहीं चाहता
संभव नहीं है बिना भीगे
उतर पाना किसी नदी में
भीगने से बचकर
नदी को जानना चाहती है
नई सदी।


नदी बहती है
इसलिए खत्म नहीं होती
खत्म होने के लिए
नहीं बहती है नदी
बिना बहे खत्म होना
नदी का अपने विरुद्ध होना है।


नदी आमंत्रण देती है
अपने साथ बहने का
नदी से मिलना
पानी की तरह
गतिवान और तरल हो जाना है।


नदी टकरा रही है
चट्टानों से
पत्थरों के सीने पर
लिख रही है वह
बिना थके अपनी जीवन-यात्रा
दुर्गम स्थानों में
नदी का न रुकना
उसका आत्मकथ्य है।


नदी में दिखाई पड़ रहा है
हमारा चेहरा
नदी का बयान
हमारे समय पर
क्रूर टिप्पणी है।


नदी सिर झुकाए खड़ी है
चीख रही है नदी
रुदन कर रही है
क्या कोई सुन रहा है
नदी का उदास हो जाना।


नदी की तरह
जीना चाहती है नदी
वह आदमी से डरकर
लौट जाना चाहती है
अपने आदिम समय में।    

२० जुलाई २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter