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प्रदीप दूबे के दोहे

 

 

जेठी दोहे

धूसर रंग से रंग रहा जेठ हरा परिवेश
मौसम राजा ने दिया यह कैसा आदेश

जेठ लगे सुलगा दिए मौसम ने तंदूर
भौजी जैसी धूप अब बनी सास सी क्रूर

रीते वाबी कूप सर सरस नदी के तीर
इत उप पानी खोजती चिड़िया तृषित अधीर

प्यास वनों में छा गई मौसम गरम मिज़ाज
बोला बूढ़ा पेड़ इक हुई कोढ़ में खाज

वनखंडी ऊजड़ हुई पगडंडी वीरान
एकाकीपन की व्यथा बाँचे तपे सिवान

तपे दिनों से खा रहे जब खजूर तक मात
फिर बेचारी दूब की आखिर क्या औकात

काट रहे दिन ताप के धूल उड़ाते खेत
ढोएँ मेड़ उदासियाँ नदी फाँकती रेत

लपटों ने झुलसा दिए नए खिले जलजात
असमय ही पिरिया गए हरे पेड़ के पात

फूलोंवाली घाटियाँ सहमी ऊजड़ मौन
गर्म हवा के काफ़िले रोके भी तो कौन

सूरज की भट्ठी तपी हवा बड़ी बेपीर
अगनबाण बरसा रही झुलसा रही शरीर

1 जून 2007

 

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