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रज़ा रामपुरी

 

 

मोहिनी सूरत

मोहिनी सूरत देख कर काहे मन ललचाय
सुंदर काया एक दिन माटी में मिल जा

चिंता चिंता सब करें दुख को हरे न कोय
ऊपर वाले के सिवा धीर धरे ना कोय

मानव का मन कब मिला नित होती तकरार
धरती अंबर मिल गए दरिया के उस पार

बैठना उठना हो कठिन झूठी ऐसी शान
जिस से सुख तन को मिले ऐसे हों परिधान

देख जवानी नर्तकी इतराई सौ बार
रूप ढला तो यों लगा सब माया बेकार

दीवारों पर बोलता जिस के घर में काग
आता उस घर में अतिथि लेकर अपना भाग

धन दौलत सब रह गया पुण्य किया ना दान
अंत समय जब आ गया याद आए भगवान

सच्चा नाता प्रेम का रब जिसका आधार
सारे नाते झूठ हैं सब रिश्ते बेकार

एक ही पल में छीन ले दाता है बलवान
इज़्ज़त शोहरत जब मिले मत करना अभिमान

ज्ञानी कोई जब मिले कर आदर सम्मान
गुर जीने के सीख ले हो जीना आसान
 

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