अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

सुरेश उपाध्याय के दोहे

 

मेरे दोहे उपनिषद

मेरे दोहे उपनिषद मेरे दोहे वेद
नामवरों को हो रहा सुनकर भारी खेद

ओशो ने खुद को कहा पढ़ालिखा भगवान
मैं हो गया प्रबुद्ध तो हर कोई हैरान

तूने खुद को ही किया सदा नज़रंदाज़
अब चलने का वक्त है अब तो आजा बाज़

पछताएगा बाद में ले ले मेरा नाम
अभी निरंतर मैं करूँ झुक झुक तुझे सलाम

तुमने अनदेखा किया मुझे बंधु हर रोज
मैंने केवल इसलिए कहा स्वयं को खोज

अपनी करतूतें अगर देने लगें सुकून
तो तुम समझो कर दिया तुमने खुद का खून

मन टुकड़ों में बँटा जब तब तक मैं था खिन्न
अब मन मिलकर एक है अब मैं हुआ अभिन्न

मैं या मन दो चीज़ हैं इन्हें एक मत मान
जब तू खुद चैतन्य है तब मन को मृत जान

जिसने जाना स्वयं को उसका गया गुमान
वह खोजे भगवान क्यों वह खुद है भगवान

जो खुद अपने में मगन वो हो गया फकीर
उसकी इस संसार में कोई नहीं लकीर

जो कुछ भी मैंने किया वह था मेरा स्वार्थ
दुनिया ने इसको कहा पागलपन परमार्थ

६ जुलाई २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter